
कई अब प्रौढ़-वृद्ध:सरकारी मान्यता कार्ड तक नहीं:फाकाकशी-फटेहाली में गुजार रहे दिन:जो कल बाहर से आए वे महलों-गाड़ियों-माल असबाब के मालिक
The Corner View
Chetan Gurung
ये वह दौर था जब हम पत्रकार भी पूरे आन्दोलनकारी के रंग में रंगे थे.हाथों में छड़ी-झाड़ियों की पतली-सूखी डंडियाँ लिए उन वृद्ध महिलाओं के साथ ही युवा-प्रौढ़-किशोर महिला-पुरुषों की तरह जो सुबह सवेरे ही कर्फ्यू या पुलिस-प्रशासन की सख्ती की परवाह न कर कई मर्तबा मुलायम की पुलिस-PAC और पंजाब-दक्षिण से आई पुलिस-अर्द्धसैनिक बलों के जवानों से भिड़ते हुए सड़कों पर उतर आया करते थे.तब बाद में भेड़-बकरियों की तादाद में उग आए पत्रकारों को अँगुलियों में गिना जा सकता था.वे आन्दोलनकारियों का हौसला और ऑक्सीजन हुआ करते थे.आलम ये था कि हर सक्रिय आन्दोलनकारी हर सक्रिय पत्रकारों को पहचानता था.उनको बेहद इज्जत देते थे.उनमें आत्मीयता का रिश्ता कायम हो चुका था.मुझे याद है कि किस तरह पत्रकारों को भी कई मर्तबा पुलिस की लाठियों के प्रहार झेलने पड़े थे.किस तरह खतरों और पुलिस-अर्द्ध सैनिक बलों की लाठियों-गालियों-गोलियों के खतरों को भी दरकिनार कर खुल के रिपोर्टिंग करने निकल पड़ते थे.पुलिस की लाठियों से घायल और अस्पताल में पड़े एक पूर्व सैनिक (Hon.Captain) की सूचना देने उनके घर मैं खुद गया था.

कई यादें हैं.पत्रकारों के पिटने और कई मर्तबा पुलिस वालों से जुबानी भिड़ंत हो जाने की.आन्दोलनकारी पुरुष-महिलाओं और युवाओं को पत्रकारों के लिए पुलिस के सामने आ के लड़ जाने की यादें आज भी रोमांचित कर डालती हैं.तब पत्रकार निष्पक्ष नहीं रह गए थे.उत्तराखंड राज्य का ख्वाब उन्होंने भी देखना शुरू कर दिया था.आन्दोलनकारियों के साथ.यही वजह है कि आन्दोलन को प्रोत्साहन देने और लोगों में जोश जगाए रखने के लिए वे अपनी रिपोर्ट्स में अतिश्योक्तियों का भी सहारा लेने से नहीं हिचकते थे.अपन ने भी ऐसा कई बार किया.कोई आन्दोलन पर PhD करे तो मालूम चलेगा कि कैसे मुलायम सरकार में UP के स्कूलों में 27 फ़ीसदी आरक्षण OBCs को दिए जाने के विरोध में निकलने वाले Private बड़े स्कूलों का शांत विरोध जुलूस शक्ल बदल के अलग राज्य आन्दोलन में तब्दील हो गया.

स्कूलों को और वह भी देश-विदेश के सुविख्यात-बड़े स्कूल्स को अलग राज्य के उस आन्दोलन से कोई मतलब होता भी क्या.उनको तो सिर्फ Admission में 27 फ़ीसदी आरक्षण OBCs को देने के फैसले पर ऐतराज था.उत्तराखंड आन्दोलन शुरू हो चुका था लेकिन परवान चढ़ना बाकी था.साल 1994 के करीब की शायद बात है.मुझे याद है उस दिन जुलूस निकालने का दिन The Doon School का था.राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के नाती-Actor मनीषा कोइराला का भाई-सुखबीर सिंह बादल का बेटा-नर बहादुर भंडारी (सिक्किम के CM)-नसीरुद्दीन शाह का बेटा-किलाचंद ग्रुप की मालकिन का बेटा और तमाम नौकरशाहों-बड़े अन्य कारोबारियों की संतानें तब इस स्कूल में थीं.
खामोश सा जुलूस माल रोड-बिंदाल पुल-चकराता रोड होते हुए घंटाघर पहुँच के वापिस लौटा.मैंने उस दिन की रिपोर्ट तैयार की थी.अपनी तरफ से मैंने उस दिन ये भी रिपोर्ट में डाल दिया कि The Doon School के बच्चों ने अलग उत्तराखंड राज्य की मांग के हक़ में भी नारे लगाए.सच ये था कि स्कूल के कई Staff, जिनसे मेरी बहुत अच्छी वाकफियत थी, ने अनौपचारिक बातचीत में मुझसे कहा कि उत्तराखंड राज्य बनना चाहिए.अगले दिन उस अख़बार में ये भी छपा कि देश के नंबर-1 स्कूल ने भी अलग पहाड़ी-हिमालयी राज्य की मांग के समर्थन में नारे लगे.जो मैं मानता हूँ कि गलत तथ्य था.समर्थन के हक़ में विचार जताना और नारे लगाना अलग-अलग बातें थीं.
बहरहाल, इस खबर के बाद अगले दिन से उत्तराखंड आन्दोलनकारियों का जोश बहुत बढ़ा हुआ दिखने लगा.ख़ुफ़िया एजेंसियां सतर्क हो गई कि स्कूलों और वह भी दून स्कूल का नाता क्या वाकई उत्तराखंड आन्दोलन से परोक्ष तौर पर जुड़ तो नहीं रहा!नतीजा ये रहा कि स्कूलों ने अपना विरोध जुलूस अगले दिन से बंद कर दिया.अपना काम लेकिन हो चुका था.अलग राज्य आन्दोलन ने आग में पेट्रोल के अंदाज में अपनी ज्वालाएँ और भड़का ली.फिर आन्दोलनकारियों पर मुलायम सरकार का दमन बढ़ने लगा.पुलिस-PAC क्रूर हो चली थी.लाठी चार्ज आम हो चला था.आन्दोलनकारियों ने भी स्कूल-सरकारी दफ्तरों (केंद्र-UP सरकार के) को बंद कराना शुरू कर दिया था.आए दिन बाजार बंद-चक्का जाम के ऐलान होने लगे.
सभी सियासी दल (सत्ताधारी समाजवादी पार्टी छोड़ के) आन्दोलन के साथ खड़े नजर आने लगे.फिर एक दिन दिल्ली कूच का ऐलान हुआ.लाख से अधिक लोग देहरादून से भी बसों-ट्रकों में निकल पड़े.बाद में CM बने BC खंडूड़ी-निशंक भी थे.मुजफ्फरनगर कांड तभी हुआ.कई पुरुष-महिला आन्दोलनकारी नारसन के करीब पुलिस-PAC की राइफलों की चिंता किए बिना आगे बढ़ते रहे.गोलियां खाते रहे.शहादत देते रहे.फिर खटीमा-मसूरी-श्रीयंत्र टापू काण्ड हुए.मसूरी में CO DySP उमाकांत त्रिपाठी गोली लगने से मारे गए.किसकी गोली से, ये आज तक पता नहीं चला है.निहायत जहीन और कवी-साहित्यकार किस्म के दिखने वाले उमाकांत अन्य पुलिस वालों से एकदम जुदा दिखने वाले थे.उनकी मौत का गम अधिक इसलिए भी हुआ कि मेरी उनसे आए दिन खूब मुलाकातें होती थीं.लम्बी बातें-गप्पें चलती रहती थीं.ये सब चीजें अक्टूबर और आसपास की थीं.
पत्रकारों ने उस वक्त क्या जिगर-जज्बा Reporting के दौरान दिखाया, ये बयां करना बहुत मुश्किल है.कुछ बड़े अखबारों के पत्रकारों को तो फिर भी कुछ मदद पुलिस और प्रशासन के अफसरों से जन-पहचान और बड़े बैनर का लाभ रिपोर्टिंग के दौरान मिल जाता लेकिन साप्ताहिक-पाक्षिक-मासिक अख़बारों के पत्रकारों को वैसा फायदा कहाँ मिलता.जब Daily अख़बारों के ही कई पत्रकार और कर्मचारी पुलिस की लाठियां खा रहे हों तो उनके लिए तो हालात और विकट थे.तब कर्फ्यू लगा था और अख़बार कैसे लोगों तक पहुँचाया जाए, ये बेहद बड़ी चुनौती थी.अख़बार ही तब आन्दोलन की खुराक थे.कर्फ्यू पास बनाए गए लेकिन UP मूल के पुलिस वालों और CRPF-RAF में ऐसे लोगों की कमी नहीं थीं, जिनको कर्फ्यू पास समझ में नहीं आते थे.
पत्रकारों के कर्फ्यू पास देखने के बावजूद वे कई बार उन पर लाठियां बरसा ही डालते थे.RSS वाले और हाल ही में दिवंगत प्रभाकर उनियाल के छोटे भाई और पत्रकार राजीव उनियाल पर एक दिन धारा पुलिस चौकी और PWD Guest हाउस के बीच बिना वर्दी डाले-मुंह को गमछों से ढंके 7-8 पुलिस वालों ने उस वक्त लाठियों से हमला बोल दिया था, जब हम Quality चौक से घंटाघर की तरफ अपने-अपने दो पहिया गाड़ियों में आगे-पीछे आ रहे थे.राजीव के पास कर्फ्यू पास था.फिर भी पुलिस उस पर टूट पड़ी.कर्फ्यू पास मेरे पास भी था लेकिन मैं कभी सीने से लटकाता नहीं था.शायद मेरा आत्मविश्वास ही मेरी पूँजी थी.पुलिस ने मुझे तो रोका नहीं लेकिन राजीव पर टूट पड़ी थी.मैंने पलट के जब देखा तो तुरंत हमलावर पुलिस वालों पर चीखता हुआ लौटा और उनको रोका.फिर उस वक्त के Additional SP (आजकल SP-City कहा जाता है) IPS सतीश माथुर को धारा चौकी से ही फोन कर शिकायत की.साथी पत्रकारों को भी बता दिया.फिर फटाफट कई पत्रकार चौकी पर आ जुटे.हमलवार पुलिस वालों की खूब ऐसी-तैसी की.
आन्दोलन की खबरों को व्यापक कवरेज देने का जूनून पत्रकारों में गजब का था.हम तो रात ढाई-तीन बजे तक दफ्तर में होते.सुबह फिर जल्दी दफ्तर आ धमकते.ये तब की बात है जब कुछ बड़े अख़बारों में Weekly Off किस चिड़िया का नाम है, पता नहीं होता था.ऐसी ही अक्टूबर की एक कर्फ्यू वाली रात (लगभग 2 बजे) अकेले घर लौटते समय बिंदाल पुल पर मौजूद CRPF के दस्ते के एक सूबेदार ने बहुत बदतमीजी से रोक के पूछा कि कहाँ से आ रहा?ये बताने के बावजूद कि पत्रकार हूँ और दफ्तर से आ रहा हूँ, वह पिया-खाया सूबेदार भड़क उठा.अपन भी खूब गरम खून और ऐसे हालात में ऐंठ जाने वाले किस्म के थे.सहन नहीं हुआ तो खूब जुबानी जंग में उलझ पड़े.गरमा-गर्मी हुई.सूबेदार ने अपनी कारबाइन उठा ली.गोली मार दूंगा.गोली मारने के आदेश हैं,बोला.मैंने भी गुस्से में चुनौती दी,`दम है तो चला गोली’.साथ खड़े बाकी जवान चुपचाप रहे.लगभग 10 मिनट की जुबानी जंग तब ख़त्म हुई जब शहर कोतवाली की पुलिस टीम जीप से वहां गश्त करते हुए पहुंची.दारोगा ने मुझे देखा तो तुरंत उतर के आया.फिर सूबेदार को किनारे ले जा के जो भी समझाया.आधी रात से ज्यादा के वक्त और हथियार से लैस पुलिस-PAC-Para Military वालों से उलझना उस वक्त बेहद कठिन होता था.अगले दिन कुछ बड़े राष्ट्रीय अख़बारों ने इस घटना को प्रमुखता से छापा.
एक बार पायनियर के एक मित्र पत्रकार (राजेंद्र बंसल) और मैं नया गाँव की तरफ जाने वाली Survey of India Estate से गुजर रहे थे.कर्फ्यू जारी था.रास्ते पर पेड़ काट के गिराया हुआ था.हम दोनों ने अपनी बाइक-स्कूटर खड़ी की.पेड़ हटाने से पहले ही अचानक हम पर पेट्रोल बम आ गिरा.सड़क पर आग ही आग दिखने लगी.मैंने हैरान हो के इधर-उधर देखा.बाईं तरफ झाड़ियों में कुछ लड़के मुंह ढंके दिखे.उन्होंने मुझे पहचान लिया.तुरन्त माफ़ी मांगी कि हमने आप दोनों को LIU (ख़ुफ़िया पुलिस) वाले समझ लिया था.फिर वे भाग खड़े हुए.वे आन्दोलनकारी युवा थे.बेहद वरिष्ठ और नामचीन पत्रकार रविंद्रनाथ कौशिक-सुभाष गुप्ता-नवीन थलेडी-दर्शन सिंह रावत-मनमोहन शर्मा-देवेन्द्र सती-जितेन्द्र अन्थ्वाल-हर्षवर्द्धन बहुगुणा-डॉ देवेन्द्र भसीन-गिरिजा शंकर त्रिवेदी-RP नैलवाल-दीप जोशी-रामप्रताप साकेती-लखेड़ा बंधुओं को बारिश-तेज धूप-कड़ाके की सर्दी में भी उत्तराखंड आन्दोलन की रिपोर्टिंग करते हर वक्त देखा जा सकता था.फोटोग्राफरों में मोहम्मद असद खान-काका (ढौंडियाल)-इन्द्रदेव रतूड़ी को चारों तरफ देख सकते थे.देवकीनंदन पांडे-अजय गोयल भी शौकिया तौर पर ही सही लेकिन कैमरा ले के निकलते दिख जाते थे.
मुझ पर घंटाघर में दो मौकों पर लाठी पड़ी.नवीन-रविंद्रनाथ समेत कई पत्रकारों ने अलग-अलग मौकों पर पुलिस के डंडे खूब खाए.कई पत्रकारों ने भले डंडे नहीं खाए लेकिन उनकी जूनून के हद तक की अलग राज्य वाली पत्रकारिता बेमिसाल थी.रिपोर्टिंग के दौरान पुलिस हिरासत तक में रहे. विश्वजीत सिंह नेगी और कई अन्य पत्रकार भी 1994 में पुलिस के हाथों रिपोर्टिंग के दौरान बुरी तरह पीटे गए थे.उनको अस्पतालों में भर्ती होना पड़ा था.उत्तराखंड बना तो LIU और Medical रिपोर्ट के आधार पर विश्वजीत समेत 22 पत्रकारों, जिनमें मेरा भी नाम था, को पेंशन देने की बात हुई.फिर ये रिपोर्ट न जाने कहाँ आई-गई और गुम हो गई.सरकार चाहे तो उस दौरान के पत्रकारों की पूरी List आराम से तैयार कर सकती है.जो जीवित नहीं है, उनके आश्रितों को मदद दे सकती है.
एक सच ये भी है कि नक्सलियों के बड़े नेता और जेल में बंद प्रशांत राही भी उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान सरकार-पुलिस के जुल्म के खिलाफ और आन्दोलनकारियों के संघर्ष पर खूब साथ खड़ा हुआ करता था.हमने साथ-साथ खूब रिपोर्टिंग की.वह निश्चित तौर पर अच्छा पत्रकार था.अच्छा लिखता था.खुद के नक्सली नेता होने का कभी अहसास नहीं होने दिया.न नक्सलवाद उसकी पत्रकारिता में झलकता था.अपनी गिरफ़्तारी से एक हफ्ते पहले वह मुझे लगभग दो साल बाद झंडा बाजार में पैदल सहारनपुर चौक जाता हुआ दिखा था.वहीँ मैंने उसको रोक के बात की थी.साल-2007 की ये बात है.वह Statesman में था.अलग राज्य तो बनना ही था.आखिर इतनी कुर्बानियां और अन्दोलनकारियों का दिल से लिया गया संकल्प व्यर्थ क्या जाता.8-9 नवम्बर-2000 की आधी रात राज्य बन गया.
जो नेता-चेहरे पत्रकारों के आगे-पीछे नाम छपवाने के लिए जी-हुजूरी किया करते थे, उनमें से अनेक MLA-MP-मंत्री (राज्य-केंद्र में) और CM तक बन गए.लाल बत्ती वाले तो सैकड़ों बने.UP के जमाने में जो बाबू तक बनने के लिए तरसते थे, वे PCS फिर IAS तो कई नायब तहसीलदार से होते हुए PCS-IAS तक हो गए.छोटे-मोटे Property Dealer-दलाल-शराब के कारोबारी आज सूरमा Real Estate उस्ताद हैं.स्कूल-कॉलेज-विवि-कम्पनियों के मालिक हैं.सरकारें उनके हिसाब से Policies बनाती हैं.उनके ईशारों पर काम होता है.मंत्री-नौकरशाहों को उनके साथ हमप्याला-हम निवाला होते देखा जा सकता है.उत्तराखंड आन्दोलन में खुद को डुबो के-जान हथेली पर रख के पत्रकारिता जो किया करते थे, उनकी दशा आज और बदतर हो चुकी है.कई अब बूढ़े हो चुके हैं.उनके सामने अपने-परिवार के लोगों का पेट भरने का का कोई साधन नहीं रह गया है.कई पत्रकार बीमारी-तनाव-अवसाद का शिकार हो के असमय परलोक गमन कर गए हैं.उनके परिवार के सामने खुद को जिन्दा बनाए रखने की चुनौती है.
साप्ताहिक-मासिक-पाक्षिक अख़बारों के पत्रकार तो बेहाल हैं.सरकार से विज्ञापन और अन्य किस्म की मदद या तो मिलती नहीं या फिर बहुत मामूली.UP के ज़माने से भी कम.छोटे अख़बारों की छोड़ दें.बड़े अख़बारों के भी उस दौर पत्रकारों में अधिकाँश या तो पत्रकारिता से रिटायर हो चुके.या फिर शारीरिक अस्वस्थता के चलते खुद ही छोड़ दी.या फिर कोई और धंधा अपना लिया.बड़े अख़बारों में उस दौर से ही पत्रकरिता कर रहे पहाड़ी मूल के अनेक पत्रकारों का हाल देख सकते हैं.स्थाई नौकरी (वैसे ये सिर्फ झांसा है-कम्पनी को जब निकालना होता है, झटके में बाहर कर देती है) के बावजूद उनके पास आज भी या तो खटारा सस्ती का है या फिर पुरानी दोपहिया.कईयों को पैदल ही भटकते देखा जा सकता है.तन पर ढंग के कपड़े-पाँव में जूते-सैंडल भी फटे हुए होते हैं.अलबत्ता, कईयों ने अपने बच्चों पर बहुत मेहनत की.उनको बहुत अच्छे स्कूल में जैसे-तैसे तालीम दिलाई.आज वे शानदार नौकरियों में हैं.
ये तस्वीर उत्तराखंड बनने के बाद आए या फिर बहुत बाद में आए पत्रकारों (इनमें अधिकतर उत्तराखंड और आन्दोलन से दूर-दूर का वास्ता नहीं रखते हैं) के एकदम उलट है.जो आज बंगलों-तमाम फ़्लैट-बड़ी गाड़ियों-प्लॉट्स के मालिक हैं.भले नौकरी उनकी या तो छोटी रही या फिर अपना ही छोटा-मोटा अख़बार-मैगजीन और अब तो You Tube चैनल-Portals खोल लिया है.बहुत लम्बा अरसा भी पत्रकरिता में उन्होंने गुजारा नहीं.कुछ बड़े बैनरों से जुड़े ऐसे लोगों की और मौज है.उनको ठसक के साथ सत्ता के गलियारों में घूमते-महँगी दारू पीते-महंगे हवाई सफ़र करते देखा जा सकता है.उनके ग्रुप बने हुए हैं.एजेंडा पर काम करते हैं.पत्रकारिता की दुहाई देने वाले कुंवर सिंह नेगी ने फटे जूतों-फटे कपड़ों में ही फटी तकदीर के साथ अंतिम सांस ली.उनके परिवार में किसी के पास कोई नौकरी या कामकाज नहीं था.वे कहाँ हैं, आज इसका पता नहीं.फोटोग्राफर नैथानी को उत्तराँचल प्रेस क्लब में आज भी देख सकते हैं.बेहद तंगहाली में और अस्वस्थ हैं.भले सदा प्रसन्नचित्त दिखते हैं.उनको भी सरकार के मदद की भारी जरूरत है.
उत्तराखंड बनने के बाद सरकारों और मुख्यमंत्रियों ने पत्रकारों के हितों की परवाह करने का दावा तो किया लेकिन ये दाल में चुटकी भर नमक से अधिक नहीं रहा.जिन पत्रकारों ने राज्य गठन के लिए जान तक दांव पर लगाईं.20-20 घंटे साल भर काम किया.उनमें से 90 फ़ीसदी अब सड़कों पर हैं या फिर वृद्धावस्था में कठिन दिन गुजार रहे.बार-बार ये मांग उठती रही है कि उत्तराखंड राज्य गठन से पहले के सक्रिय पत्रकारों के हितों की रक्षा के लिए सरकार ठोस कदम उठाए.उनको पत्रकार वाला सरकारी मान्यता कार्ड स्थाई रूप से दे दिया जाए.कम से कम वे सरकारी बसों में इधर-उधर जा सकेंगे.ईलाज में मदद मिलेगी.कम कीमत पर सरकारी गेस्ट हाउस में ठहर सकेंगे.उनको जीवन निर्वाह के लिए पेंशन इतनी दी जाए कि वे सुबह क्या खाएं-रात को क्या खाएं?कहाँ से इसका बंदोबस्त करें, इसकी फ़िक्र न हो.CM कई आए.कई गए.जो चले गए उनके लिए अब क्या कहना.
आज के CM पुष्कर सिंह धामी ने उत्तराखंड आन्दोलन को परवान चढ़ते और मंजिल हासिल करने के दौरान पत्रकारों की भूमिका को खुद देखा है.युवा-संवेदनशील-संकल्पवान और जो ठान ले उसको पूरा करने का माद्दा-छवि-प्रतिष्ठा रखते हैं.गुजरे जमाने के हों या फिर आज के पत्रकार, सभी को करीब से उनकी नाम-छवि और उनके एक-एक कारनामों से भली-भांति वाकिफ हैं.उम्मीद की जानी चाहिए कि उत्तराखंड राज्य के गठन से पहले के पत्रकारों के लिए वह कुछ नया और ठोस व्यवस्था कर देंगे.छोटे-मोटे कारनामे तो सभी करते हैं.पुष्कर बड़ा करने में यकीन रखते हैं.उत्तराखंड आन्दोलन से जुड़े हर पहाड़ी-गैर पहाड़ी पत्रकारों के हित में भी वह कुछ बड़ा ही कल्याणकारी कदम उठाएंगे, इसकी उम्मीद तो की ही जा सकती है.
जितेन्द्र अंथवाल उन दिनों को याद करते हैं,`अजय गुलाटी, राजू बंगवाल, रविंद्र बर्थवाल रामपुर तिराहे पर गोलियों के बीच रहे…। जितेंद्र नेगी, मैं, दर्शन सिंह रावत गन्ना समिति में पिटे…। भानु बँगवाल को ऋषिकेश और विमल ठाकुर को मसूरी में पुलिस ने कुछ देर हिरासत में रखा..। मुझ समेत कुछ लोग आंदोलन की रणनीति बनाने और भागीदारी में सीधे जुड़े थे। मैं और जय सिंह रावत सुबह डालनवाला इलाके में प्रभात फेरी में शामिल होते थे। अखबारी ड्यूटी के बाद ब्लैक आउट में मैने मुहल्ले के लड़कों के साथ दो बार नगर निगम का बिजली घर कब्जाया..’।